|एक |
चल घर चले
थकी हुई सांसों में
थोडा चैन भरे
चल घर चलें
इतनी सी बात को
उतनी लम्बी न करे
चल घर चलें
शब्दों से कडवे हुए कलेवर को
चाय की चुस्की से मीठा करें
चल घर चले !
|दो |
कौन जाने ?
थके मांदे ये राहगीर किसे पता कितनी दूर हैं उस घर से जहाँ इनका बसेरा है ?
ढलती शाम में चढ़ती बेचैनी है मन में या तन में थकान का डेरा है ?
इस सफ़र में साथी का भरोसा है या संशय है के कौन परछाई ने पीछे से टेरा है ?
घर बस पहुँच ही जाने की उम्मीद है या चिंता है कि पल पल बढ़ता ये अँधेरा है ?
कौन जाने कितने आते जाते ख्यालों के बीच ये दोनों चले जा रहे हैं, कौन जाने और कितने कदमो का फेरा है ?
तस्वीर यहाँ से ली गई :http://www.samsays.com/Images/Guest%20Gallery/Swapan%20Mukherjee/04.-Going-Home.jpg