16 दिसंबर 2010

वो कहाँ है ?





कोहरा यहाँ सड़क पे टहल रहा है
मेरे आस पास घूम कर पूछ रहा है 
वो कहाँ है ?
मैं एक पुल पर बैठा हूँ
एक टॉमी मेरे पास आता है 
मेरी टांगो से अपना सर सहलाता 
मुझसे एक फुट की दूरी पर, रस्ते को तांकता बैठ जाता है
फिर कातर निगाहों से मेरी ओर देख कर पूछता है
वो कहाँ है ?
मैं उसकी आँखों और कोहरे की छुवन से बचने के लिए
अपना सर नमा लेता हूँ
मिट्टी में नज़रें गढ़ा देता हूँ
कुछ देर में मिट्टी मिट्टी नहीं रहती
शुन्य हो जाती है 
बिना किसी सापेक्ष* के 
खुद में खो जाती है
दिमाग में घूमता सवाल उस पर चस्पा दिखता है-
-वो कहाँ है ? 









* relative, something to compare with 
-चित्र के पते के लिए यहाँ चटकाएं

7 जुलाई 2010

एक तस्वीर दो ख्याल




|एक |



चल घर चले
थकी हुई सांसों में
थोडा चैन भरे 
चल घर चलें
इतनी सी बात को 
उतनी लम्बी न करे 
चल घर चलें
शब्दों से कडवे हुए कलेवर को
चाय की चुस्की से मीठा करें 
चल घर चले ! 



|दो |

कौन जाने ?
थके मांदे ये राहगीर किसे पता कितनी दूर हैं उस घर से जहाँ इनका बसेरा है ? 
ढलती शाम में चढ़ती बेचैनी है मन में या तन में थकान का डेरा है ? 
इस सफ़र में साथी का भरोसा है या संशय है के कौन परछाई ने पीछे से टेरा है ? 
घर बस पहुँच ही जाने की उम्मीद है या चिंता है कि पल पल बढ़ता ये अँधेरा है ? 
कौन जाने कितने आते जाते ख्यालों के बीच ये दोनों चले जा रहे हैं, कौन जाने और कितने कदमो का फेरा है ? 










तस्वीर यहाँ से ली गई :http://www.samsays.com/Images/Guest%20Gallery/Swapan%20Mukherjee/04.-Going-Home.jpg

24 मई 2010

ढूँढता हूँ कुछ


कुछ ढूँढता हूँ 
इन तस्वीरों में
जो सामने मेरे पड़ी हैं
हँसते हुए मेरे दोस्त हैं
कुछ चुप खड़े हैं 
कुछ के अंतर तक हंसी गडी है 
कहीं गलियां हैं 
कहीं कुछ ठीये हैं 
एक घर है 
जो अब मकान जैसा लगता है 
नातेदार हैं 
खून के रिश्ते वाले
कुछ बिना खून के रिश्ते वाले.

कुछ तस्वीरों में इंसान नहीं है कोई भी 
खंडहर है महल है 
सड़क है पुल है 
झील है और झील में डूबी हुई बातें हैं
कहीं किसी सीढ़ी या बेंच पर 
सालों से बैठा विश्वास है 
कहीं किसी खंडहर सी 
बची-कुची कोई याद है.

इन तस्वीरों में 
मैं ढूँढता हूँ कुछ-
जो तब महसूस होता था,
जो आज की हकीकत में,
मुझे दिखता नहीं अब.





13 मार्च 2010









रेत...काली सफ़ेद.



हल्का सुनहरा पीला गेहूं का खेत 


खुले  हाथ...बनाते गेहूं का खेत !


भीची मुट्ठी...करती सपने रेत !


रेत...काली सफ़ेद.







28 फ़रवरी 2010

बहुत ही खतरनाक हो सकता है समझौता करना

नीचे जो मैंने चस्पा किया है, क्या है, मुझे नहीं पता. कविता सा शिल्प नहीं है उसका न ही गद्य सी स्पष्टता और लय है उसमे. परचून की दूकान पर कोई ताँता नहीं लग रहा है लोगों का और शायद जो इक्का दुक्का, जान-पहचान वाले आते है पढने, वो भी यह सवाल न उठाने वाले हो कि यह क्या है, लेकिन मैं पहले ही बता दूँ ...की मुझे नहीं पता इसके वर्गीकरण के बारे में.
आगे यह की ये लिखा क्यों गया. मेरा पिछले कुछ दिनों से, काम के सिलसिले में जिम कॉलिन्स के गुड टू ग्रेट कांसेप्ट से पाला पड़ा हुआ था, जिसमे किसी कंपनी के आशातीत से भी बढ़ कर परिणाम देने के लिए जरूरी कदमो का जिक्र है. ये सब जिम ने सालो के काम के बाद लिखा और उसे एक किताब के रूप में भी निकाला. मैंने वो नहीं पढ़ी है ! सिर्फ एक प्रेसेंटेशन से पाला पड़ा था...वो भी मैंने उसे अपने माथे नहीं लिया...वही मेरे माथे पड़ी. तो इस पूरे दौर में, मैं बार बार सोचता रहा की हम एक समुदाय के रूप मैं क्यों पिछड़ जाते हैं. मैंने पाया, जितनी अक्ल है उतनी या शायद कम भिड़ा कर, कि बारीक बातों में जब हम 'चलता है' को जीते जाते है, तब हमारा सोचने और काम करने का तरीका साल-दर-साल, पीढ़ी-दर-पीढ़ी - ख़राब होता जाता है. यहीं सब सोचते हुए, बीच में कहीं से ये...जो लिखा है, सूझा था.


बहुत ही खतरनाक हो सकता है समझौता करना 

जब हम उन चीजो से हार कर, थक कर,डर कर
या उदासीन हो कर समझौता कर लेते है ,
जो हमारी कहीं से सिंचित या खुद ही की निर्मित अवधारणा को चुनौती देती है,
या उन पर हंसती है या उनके सब्सटेंस  पर शक करती है, या उनकी जरूरत को बेमतलब ठहराती है,
क्योंकि उस अवधारणा से कुछ भौंडी, घिसी हुई, बेमतलब, खोटी, बदसूरत अवधारणाएं,
सदियों से जो चली आ रहीं है,
के अस्तिव पर प्रश्नचिन्ह लगता है,
तब हम एक नए विचार या कर्म या दोनों ही के रूप में,
इस पूरे सिस्टम/ब्रह्माण्ड को वंचित कर देतें है,
खुद भी कुछ अगले विचार या कर्म या दोनों ही से वंचित हो जाते हैं.

लेकिन ज्यादातर समय हम समझौते के बाद,
कुछ भौंडे, घिसे हुए, बेमतलब, खोटे, बदसूरत, विश्वास हीन, विचारों या कर्मों
या दोनों ही को खुद पर थोप लेते है, ढोल लेते है,
और फिर इस सिस्टम/ब्रह्माण्ड पे ढोल देतें है.
और ये विचार, कर्म या दोनों ही -
हमारे और हमारी आवाज को सुनने वाले, हरकत को देखने वाले, मन को महसूस करने वाले लोगों के लिए,
सिर्फ हौसला डिगाने वाले, सच से मन हटाने वाले, कोशिश करने की, खोजने की इंसानी फितरत को रोकने वाले ही नहीं होते है,
बल्कि हमें तोतला, गूंगा, बहरा बनाने वाले होतें है -
कान या आँख या मुहँ से नहीं....अन्दर से.
अन्दर से यूँ दमघुटा हो जाना फिर -
अगले समझौते का रास्ता तैयार करता हैं, नए पलायन की नींव रखता है,
अपने साथ दूसरों के शब्दों को, सुनने के प्रयासों को और साफ़ बोलने की कोशिश को,
डर दिखा कर दबाता है, या झूठी सच्चाइयों की बाढ़ में डुबाता है.
 ...एक से एक सपने टूटते जाते है...एक से एक बाँध फूटते जाते है...एक से एक समझौते होते जाते हैं...
बहुत ही खतरनाक हो सकता है समझौता करना.

5 फ़रवरी 2010

चिठ्ठी मेरी पहुँचाओगे ?





लगता है सीधा पता टेढ़ा हो गया...
चिठ्ठी बिना खुले वापस आ जाती है...
तुम जानते हो उसे,
घर तक क्या मेरा संदेस ले जाओगे 
चिठ्ठी मेरी पहुँचाओगे ?

...हाँ-हाँ फ़ोन मैंने लगाया था
नंबर को रीच के बाहर पाया था
झल्ला के पेन-पेपर उठाया था,
मौक़ा मिला तो क्या,
ढून्ढ उसे पाओगे?
चिठ्ठी मेरी पहुँचाओगे ?

नहीं कुछ ख़ास नहीं- 
मेरी चोरी के राज़ है इसमें,
दिल क्यों तोडा उसका,
ये बात है  इसमें,
आंसू गर भर आये आँखों में उसकी,
बैठा के उसे पढ़ सुनाओगे ?
चिठ्ठी मेरी पहुँचाओगे ? 

एक छोटा सा काम और है - कर आओगे ?
मेरे पास कोई नहीं तस्वीर उसकी,
धुंधली सी है अब बस लकीर उसकी
ड्राइंग रूम में एक एल्बम टेबल पे पड़ा होगा,
तस्वीर एक निकाल लाओगे ?
ये चिठ्ठी मेरी पहुँचाओगे ?


सच लिखा है डर लगता है,
बोझिल हर एक पहर लगता है,

मिलना मुश्किल है,
लेकिन जवाब लिखा अगर, 
तो क्या जल्दी वापस आ जाओगे ?
ये चिठ्ठी मेरी पहुँचाओगे ?

21 जनवरी 2010

चार शेर

कब तेरी नूरियां मेरी आँखों से ओझल होगी ....


कर रहा था गमे जहाँ का हिसाब, आज तुम बेहिसाब याद आये ...कभी-कभी याद आना किसी का एक मुसीबत सा बन जाता है. हमारे जेहन से चिपकी यादें, मूल रूप से हमारी अस्सेट्स होती हैं. खाजाना जो हमने इकठ्ठा किया है अभी तक के सफ़र में अपने. लेकिन जब इन्ही यादों में से कोई एक, आँखों में नींद न आने दे और एक हिस्सा विश्वास और जस्बा पिघलने लगे, तो वो दर्द बनके रगों में दौड़ता है....दर्द तो कुछ देर में खत्म हो जायेगा, लेकिन जस्बा जो पिघला - तो वापस उतना ही बनने में समय लेता है. 



कब तेरी नूरियां मेरी आँखों से ओझल होगी 
और कितनी रातें, नींद यूँ ही बोझिल होगी.



बोलने लगे है सुनसान सन्नाटे भी अब तो,
मैं सोचता हूँ, बाजी तेरी पायल होगी.


जब तलक समझ पाएंगे प्रीत का मतलब ये लोग,
प्रीत तेरी, दुनिया की नज़रों से यूँ ही घायल होगी.


इंसानों से बेहतर तो जानवर बात करते हैं,
ये कोयल बोली है यहाँ, कूकी कहीं और कोई कोयल होगी.


19 जनवरी 2010

रंग हमारा


काला और सफ़ेद ही रंग नहीं है लोगो का,
काले में भिन्न भिन्न गहराइयाँ  है,
सफ़ेद में अलग अलग स्तर की रौनक है.
कहीं पीलापन है.
फिर बाज़ार में बातों, यादों, तजुर्बे और मजबूरियों का
हरा, नीला, लाल रंग भी मिलता है.
जो साल-दर-साल काले-सफ़ेद पे चढ़-उतर कर...
हम सब को लगभग एक ही जैसा पोत देता है.

हमे कोई हक़ नहीं,
कि सामने वाले के अजीब से रंग को देख कर नाक-भौंह सिकोड़े,
या हंसी उसकी उड़ायें,
रंग हमारा भी उतना ही रंगीन है,
या शायद बेरंग,
या चितकबरा -
एक बार शीशा पहले देख आयें !

16 जनवरी 2010

कल आज और कल !

जो बीत गया कल,
जो आने वाला है कल,
हम लोग सोचते रहते हैं उसके बारे में,
पढ़े-लिखे, पढ़-लिख रहे लोग.
हमे बीते कल और आने वाले कल में
लय कायम रखना है.
पढना है, सीखना हैं, काम करना है, नाम करना है.
आज के समय की कड़ी से बांधना है
बीते कल की सीख को, याद को, मजे को-
आने वाले कल की आशा से, जीवन से, जीने से, सम्भावना से !

वहीँ दूसरी ओर कुछ लोग हैं
जिनका बीता कल और आने वाला कल,
एक दम एक जैसा है.
वैसा, जैसा उनका आज है.
बीते कल की याद और सीख ये है कि
'गेती चलाऊंगा तो रोटी मिलेगी.'
आने वाले कल की आशा भी यही.
आज की हकीकत भी यही !

रात में हम पढ़े-लिखे
आशा, याद और संवाद से मन बहलाते हैं
ज्यादातर हम, बिस्तर पर पड़े घंटो बाद, मुश्किल से सो पाते है.
और कुछ लोग आज की हकीकत को भोग,
कल और कल की क्रूर सचाई से निर्भय,
थके-भाले, झट से गहरी नींद में खो जाते हैं.

हमारी आशा से उनकी हकीकत ज्यादा मीठी है शायद !

10 जनवरी 2010

आग-अंगारे



एक बार लकड़ियों के ढेर में तीली लगाने के बाद
जो माचिस संभाल कर रखते हैं,
वो यक़ीनन धधकते अंगारे नहीं देख पाते.
वो फिर कुछ, किसी और जगह, काड़ियाँ इकठ्ठी कर,
दस मिनिट की आग सुलगाने लगते है.
बार बार बत्ती लगाने से बस आग लगती है ,
जो बिना असले के, फडफडा के बुझ जाती है,
और उठता है सिर्फ धुआं,
जो आँखों को बेचैन कर बैठ जाता है.

जिन्हें रात बितानी है जाड़े में,
पहुंचाना है आग को उसके अंजाम तक  
और यक़ीनन देखने हैं धधकते अंगारे,
वो माचिस नहीं संभालते -
- वो ढूंढ़ते हैं लकड़ियाँ,
ढूंढ़ते हैं ढेरो में लकड़ियाँ.
अंगारे बार-बार आग लगाने से नहीं
आग में बार-बार लकड़ियाँ डालने से बनते है.

Photo Source : http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/1/1e/Embers_01.JPG

२०१० की पहली पोस्ट थी. आप को नव वर्ष की शुभकामनाएं !! उम्मीद है २०१०, शानदार रहे !