21 जनवरी 2010

चार शेर

कब तेरी नूरियां मेरी आँखों से ओझल होगी ....


कर रहा था गमे जहाँ का हिसाब, आज तुम बेहिसाब याद आये ...कभी-कभी याद आना किसी का एक मुसीबत सा बन जाता है. हमारे जेहन से चिपकी यादें, मूल रूप से हमारी अस्सेट्स होती हैं. खाजाना जो हमने इकठ्ठा किया है अभी तक के सफ़र में अपने. लेकिन जब इन्ही यादों में से कोई एक, आँखों में नींद न आने दे और एक हिस्सा विश्वास और जस्बा पिघलने लगे, तो वो दर्द बनके रगों में दौड़ता है....दर्द तो कुछ देर में खत्म हो जायेगा, लेकिन जस्बा जो पिघला - तो वापस उतना ही बनने में समय लेता है. 



कब तेरी नूरियां मेरी आँखों से ओझल होगी 
और कितनी रातें, नींद यूँ ही बोझिल होगी.



बोलने लगे है सुनसान सन्नाटे भी अब तो,
मैं सोचता हूँ, बाजी तेरी पायल होगी.


जब तलक समझ पाएंगे प्रीत का मतलब ये लोग,
प्रीत तेरी, दुनिया की नज़रों से यूँ ही घायल होगी.


इंसानों से बेहतर तो जानवर बात करते हैं,
ये कोयल बोली है यहाँ, कूकी कहीं और कोई कोयल होगी.


19 जनवरी 2010

रंग हमारा


काला और सफ़ेद ही रंग नहीं है लोगो का,
काले में भिन्न भिन्न गहराइयाँ  है,
सफ़ेद में अलग अलग स्तर की रौनक है.
कहीं पीलापन है.
फिर बाज़ार में बातों, यादों, तजुर्बे और मजबूरियों का
हरा, नीला, लाल रंग भी मिलता है.
जो साल-दर-साल काले-सफ़ेद पे चढ़-उतर कर...
हम सब को लगभग एक ही जैसा पोत देता है.

हमे कोई हक़ नहीं,
कि सामने वाले के अजीब से रंग को देख कर नाक-भौंह सिकोड़े,
या हंसी उसकी उड़ायें,
रंग हमारा भी उतना ही रंगीन है,
या शायद बेरंग,
या चितकबरा -
एक बार शीशा पहले देख आयें !

16 जनवरी 2010

कल आज और कल !

जो बीत गया कल,
जो आने वाला है कल,
हम लोग सोचते रहते हैं उसके बारे में,
पढ़े-लिखे, पढ़-लिख रहे लोग.
हमे बीते कल और आने वाले कल में
लय कायम रखना है.
पढना है, सीखना हैं, काम करना है, नाम करना है.
आज के समय की कड़ी से बांधना है
बीते कल की सीख को, याद को, मजे को-
आने वाले कल की आशा से, जीवन से, जीने से, सम्भावना से !

वहीँ दूसरी ओर कुछ लोग हैं
जिनका बीता कल और आने वाला कल,
एक दम एक जैसा है.
वैसा, जैसा उनका आज है.
बीते कल की याद और सीख ये है कि
'गेती चलाऊंगा तो रोटी मिलेगी.'
आने वाले कल की आशा भी यही.
आज की हकीकत भी यही !

रात में हम पढ़े-लिखे
आशा, याद और संवाद से मन बहलाते हैं
ज्यादातर हम, बिस्तर पर पड़े घंटो बाद, मुश्किल से सो पाते है.
और कुछ लोग आज की हकीकत को भोग,
कल और कल की क्रूर सचाई से निर्भय,
थके-भाले, झट से गहरी नींद में खो जाते हैं.

हमारी आशा से उनकी हकीकत ज्यादा मीठी है शायद !

10 जनवरी 2010

आग-अंगारे



एक बार लकड़ियों के ढेर में तीली लगाने के बाद
जो माचिस संभाल कर रखते हैं,
वो यक़ीनन धधकते अंगारे नहीं देख पाते.
वो फिर कुछ, किसी और जगह, काड़ियाँ इकठ्ठी कर,
दस मिनिट की आग सुलगाने लगते है.
बार बार बत्ती लगाने से बस आग लगती है ,
जो बिना असले के, फडफडा के बुझ जाती है,
और उठता है सिर्फ धुआं,
जो आँखों को बेचैन कर बैठ जाता है.

जिन्हें रात बितानी है जाड़े में,
पहुंचाना है आग को उसके अंजाम तक  
और यक़ीनन देखने हैं धधकते अंगारे,
वो माचिस नहीं संभालते -
- वो ढूंढ़ते हैं लकड़ियाँ,
ढूंढ़ते हैं ढेरो में लकड़ियाँ.
अंगारे बार-बार आग लगाने से नहीं
आग में बार-बार लकड़ियाँ डालने से बनते है.

Photo Source : http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/1/1e/Embers_01.JPG

२०१० की पहली पोस्ट थी. आप को नव वर्ष की शुभकामनाएं !! उम्मीद है २०१०, शानदार रहे !