24 मई 2010

ढूँढता हूँ कुछ


कुछ ढूँढता हूँ 
इन तस्वीरों में
जो सामने मेरे पड़ी हैं
हँसते हुए मेरे दोस्त हैं
कुछ चुप खड़े हैं 
कुछ के अंतर तक हंसी गडी है 
कहीं गलियां हैं 
कहीं कुछ ठीये हैं 
एक घर है 
जो अब मकान जैसा लगता है 
नातेदार हैं 
खून के रिश्ते वाले
कुछ बिना खून के रिश्ते वाले.

कुछ तस्वीरों में इंसान नहीं है कोई भी 
खंडहर है महल है 
सड़क है पुल है 
झील है और झील में डूबी हुई बातें हैं
कहीं किसी सीढ़ी या बेंच पर 
सालों से बैठा विश्वास है 
कहीं किसी खंडहर सी 
बची-कुची कोई याद है.

इन तस्वीरों में 
मैं ढूँढता हूँ कुछ-
जो तब महसूस होता था,
जो आज की हकीकत में,
मुझे दिखता नहीं अब.