2 अगस्त 2011

धरती और बादल !!


कैसा खेल है, तपती है खपती है 
धूप में धरती 
बादल बनते रहतें है उसी समय 
जैसे गुस्सा भर रहें हो अपने मन में-
-धरती के दर्द पर !

जब बस छूट ही जाता है धीरज
तब उमड़ते घुमड़ते आ जाते हैं बादल
रज के बरसते हैं 
जैसे प्यार लुटा रहे हों-
-इतने दिन दूर रहने के लिए !

बादल बहतें हैं फिर पानी बनकर धरती पर
धरती की अधीरता को धोते हैं-
-सिरे से सिरे तक ! 

धरती उस लाड को 
रिसने देती है अपने भीतर 
भरती है दिल अपना 
बादल के प्यार से
जो वो होंगे नहीं, गहन तपन में 
तब वो गहरा बसा प्यार 
धरती को दिलाता रहेगा याद बादल का लाड ! 

क्या बादल को पता है उसके जीवन का मतलब ?
क्या वो जानता है यक़ीनन की प्लान क्या है ?
या वो सिर्फ चलता रहता है उस ओर 
जहाँ से उसे खिचाव महसूस होता है 
और जब वो पा जाता है उन वृहद् मैदानों को 
तो उन पर फ़ना हो जाता है 
आँचल में धरती के खो जाता है !

क्या धरती को पता है अपनी और बादल की कहानी ?
क्या वो जानती है यक़ीनन की प्लान क्या है ?
या वो धीर अधीर हर बार 
इंतज़ार करती है, तड़पती है 
आस करती है की कब आएँगे बादल 
उस पर फ़ना हो जाने 
उसके आँचल में खो जाने ? 


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