28 फ़रवरी 2010

बहुत ही खतरनाक हो सकता है समझौता करना

नीचे जो मैंने चस्पा किया है, क्या है, मुझे नहीं पता. कविता सा शिल्प नहीं है उसका न ही गद्य सी स्पष्टता और लय है उसमे. परचून की दूकान पर कोई ताँता नहीं लग रहा है लोगों का और शायद जो इक्का दुक्का, जान-पहचान वाले आते है पढने, वो भी यह सवाल न उठाने वाले हो कि यह क्या है, लेकिन मैं पहले ही बता दूँ ...की मुझे नहीं पता इसके वर्गीकरण के बारे में.
आगे यह की ये लिखा क्यों गया. मेरा पिछले कुछ दिनों से, काम के सिलसिले में जिम कॉलिन्स के गुड टू ग्रेट कांसेप्ट से पाला पड़ा हुआ था, जिसमे किसी कंपनी के आशातीत से भी बढ़ कर परिणाम देने के लिए जरूरी कदमो का जिक्र है. ये सब जिम ने सालो के काम के बाद लिखा और उसे एक किताब के रूप में भी निकाला. मैंने वो नहीं पढ़ी है ! सिर्फ एक प्रेसेंटेशन से पाला पड़ा था...वो भी मैंने उसे अपने माथे नहीं लिया...वही मेरे माथे पड़ी. तो इस पूरे दौर में, मैं बार बार सोचता रहा की हम एक समुदाय के रूप मैं क्यों पिछड़ जाते हैं. मैंने पाया, जितनी अक्ल है उतनी या शायद कम भिड़ा कर, कि बारीक बातों में जब हम 'चलता है' को जीते जाते है, तब हमारा सोचने और काम करने का तरीका साल-दर-साल, पीढ़ी-दर-पीढ़ी - ख़राब होता जाता है. यहीं सब सोचते हुए, बीच में कहीं से ये...जो लिखा है, सूझा था.


बहुत ही खतरनाक हो सकता है समझौता करना 

जब हम उन चीजो से हार कर, थक कर,डर कर
या उदासीन हो कर समझौता कर लेते है ,
जो हमारी कहीं से सिंचित या खुद ही की निर्मित अवधारणा को चुनौती देती है,
या उन पर हंसती है या उनके सब्सटेंस  पर शक करती है, या उनकी जरूरत को बेमतलब ठहराती है,
क्योंकि उस अवधारणा से कुछ भौंडी, घिसी हुई, बेमतलब, खोटी, बदसूरत अवधारणाएं,
सदियों से जो चली आ रहीं है,
के अस्तिव पर प्रश्नचिन्ह लगता है,
तब हम एक नए विचार या कर्म या दोनों ही के रूप में,
इस पूरे सिस्टम/ब्रह्माण्ड को वंचित कर देतें है,
खुद भी कुछ अगले विचार या कर्म या दोनों ही से वंचित हो जाते हैं.

लेकिन ज्यादातर समय हम समझौते के बाद,
कुछ भौंडे, घिसे हुए, बेमतलब, खोटे, बदसूरत, विश्वास हीन, विचारों या कर्मों
या दोनों ही को खुद पर थोप लेते है, ढोल लेते है,
और फिर इस सिस्टम/ब्रह्माण्ड पे ढोल देतें है.
और ये विचार, कर्म या दोनों ही -
हमारे और हमारी आवाज को सुनने वाले, हरकत को देखने वाले, मन को महसूस करने वाले लोगों के लिए,
सिर्फ हौसला डिगाने वाले, सच से मन हटाने वाले, कोशिश करने की, खोजने की इंसानी फितरत को रोकने वाले ही नहीं होते है,
बल्कि हमें तोतला, गूंगा, बहरा बनाने वाले होतें है -
कान या आँख या मुहँ से नहीं....अन्दर से.
अन्दर से यूँ दमघुटा हो जाना फिर -
अगले समझौते का रास्ता तैयार करता हैं, नए पलायन की नींव रखता है,
अपने साथ दूसरों के शब्दों को, सुनने के प्रयासों को और साफ़ बोलने की कोशिश को,
डर दिखा कर दबाता है, या झूठी सच्चाइयों की बाढ़ में डुबाता है.
 ...एक से एक सपने टूटते जाते है...एक से एक बाँध फूटते जाते है...एक से एक समझौते होते जाते हैं...
बहुत ही खतरनाक हो सकता है समझौता करना.

5 फ़रवरी 2010

चिठ्ठी मेरी पहुँचाओगे ?





लगता है सीधा पता टेढ़ा हो गया...
चिठ्ठी बिना खुले वापस आ जाती है...
तुम जानते हो उसे,
घर तक क्या मेरा संदेस ले जाओगे 
चिठ्ठी मेरी पहुँचाओगे ?

...हाँ-हाँ फ़ोन मैंने लगाया था
नंबर को रीच के बाहर पाया था
झल्ला के पेन-पेपर उठाया था,
मौक़ा मिला तो क्या,
ढून्ढ उसे पाओगे?
चिठ्ठी मेरी पहुँचाओगे ?

नहीं कुछ ख़ास नहीं- 
मेरी चोरी के राज़ है इसमें,
दिल क्यों तोडा उसका,
ये बात है  इसमें,
आंसू गर भर आये आँखों में उसकी,
बैठा के उसे पढ़ सुनाओगे ?
चिठ्ठी मेरी पहुँचाओगे ? 

एक छोटा सा काम और है - कर आओगे ?
मेरे पास कोई नहीं तस्वीर उसकी,
धुंधली सी है अब बस लकीर उसकी
ड्राइंग रूम में एक एल्बम टेबल पे पड़ा होगा,
तस्वीर एक निकाल लाओगे ?
ये चिठ्ठी मेरी पहुँचाओगे ?


सच लिखा है डर लगता है,
बोझिल हर एक पहर लगता है,

मिलना मुश्किल है,
लेकिन जवाब लिखा अगर, 
तो क्या जल्दी वापस आ जाओगे ?
ये चिठ्ठी मेरी पहुँचाओगे ?