29 दिसंबर 2009

रामराज्य की कल्पना

नाम या उपनाम सुनने पर जहाँ भौंहें न सिकुड़े,
एक इंसान से मिलने की ख़ुशी में बस चेहरा मुसकाय.

मौके जहाँ इतने हो कि हज़ारो धीरुभाई निकले,
बेरोकटोक और स्वेच्छा से, हर एक मनचाही दिशा में जाये.

क्रांति और आज़ादी के नारे लगाने वालो को जरूरी  न लगे इंकलाब,
इच्छाएं जरूरतें सबकी, जनता की सरकार पूरी कर जाये.

भारत / इंडिया / हिंदोस्तां, जिस भी नाम से पुकारे,
इस जहाँ के लोग, बस प्यार और समता याद कर पाए.

चमन में अपने इतने फूल खिलें,
कि खुशबू उनकी पड़ोसियों का भी घर महका आये.

मेरे मालिक ! ये कल्पना मेरी रामराज्य की,
समंदर की हवाओं के साथ, सारे उपमहाद्वीप में फ़ैल जाए.

दरवाजे

हम सबों ने जितने दरवाजे अपने दिलो में खोल रखे हैं
उससे ज्यादा दरवाजे बंद कर रखे हैं.
कही जात-पात के अंतर के चलते दरवाजे बंद हैं,
तो कहीं बौद्धिक विशिष्ठता के.

मानव फितरती रूप से सामाजिक हैं.
मानव फितरती रूप से एक समूह में रहना पसंद करता है-
समूह में ताकि संगठित हो बाकि सब से 'सेफ' महसूस कर सके.
व्यक्तिपरक भी समूह में घूमते है !
वहां सिर्फ वैयक्तिक मानव ही समूह का हिस्सा बन सकते है.
मजाक है ! 

यार दरवाजो को खोलो.
दरवाजों से कोई परी या कुबेर के खजाने की किश्त
अन्दर नहीं आने वाली.
मुद्दा ये है कि इन दरवाजों के खुलने पर ही वो तमाम झरोखे  -
- उन दरवाजो से जुड़े कमरों के- खुल पाएंगे,
जिनसे ताज़ी हवा अन्दर आएगी.

21 दिसंबर 2009

तारतम्य

मैं ने तुम्हे देखा है कई बार
बातें की है तुमसे हज़ार
लेकिन कभी समझ नहीं पाया मैं
कि क्यों एक सनसनी सी होती है मन में-
जब मैं-तुम साथ होते है
ना ये समझ पाया कि क्यों तुम्हारे बिना भी
सनसनी सी होती है मन में.
और ना ही ये समझ पाया कभी
कि क्यों मैं तुम्हे बताता नहीं
कि होती है सनसनी साथ या बिन तुम्हारे.
और ये तो मैं बिलकुल ही नहीं समझ पाया
कि ना बता कर, तुम्हे खोने की रिस्क उठा कर भी,
क्यों मैं चलना चाहता हूँ दो कदम तुम्हारे साथ,
क्यों मापना चाहता हूँ तुम्हारे कदमो की लम्बाई,
और क्यों बैठाना चाहता हूँ तारतम्य !!

10 दिसंबर 2009

आंसू

कुछ लोगो की आँखों में आंसू होते हैं
जो दिखाई देते हैं.
वो आंसू जो दिखाई देते हैं शायद आप की आँखों से आंसू न निकाल पाए.
आप ऊपर ही ऊपर से समझ लें उस व्यक्ति कि समस्या-
बना के एक अदबदा सा या संवेदनशील चेहरा.
या फिर ऐसी कोई हुंकार, आवाज़ या हरकत करे
जो आपकी समस्या समझने की समझ को प्रदर्शित करती हो.

कुछ और लोगो की आँखों में आंसू होते हैं
जो दिखाई नहीं देते-
सिर्फ महसूस होते हैं.
गहरी किसी मार या हार या कोई नकली जीत
या कुछ और विश्वास डिगाने वाला कोई वाक्या,
इन आंसुओ को तपता हुआ बना देता है-
इन न दिखने वाले लेकिन महसूस होने वाले आंसुओ की तपिश से,
सामने वाले की आँखों में कुछ नम सा आ जाता है-
जो पिघला था कही दिल में.

ये लोग, जिनके आंसू दिखाई नहीं देते पर महसूस होते है,
छुपा लेते हैं अपना चेहरा,
दबा लेते हैं दिल के भीतर ही दिल की बात-
उन्हें पता है उनके आंसू दिखाई नहीं देते लेकिन महसूस होते है.
उन्हें डर है के बातो बातो में आंसू बह ना जाये.
चलो ढूँढ़ते हैं उन्हें जिनके आंसू छलक नहीं रहे,
अपने आस पास ही कही.
चलो उनसे दो बातें कर आते है !

मीता - 4

संजा खिली है,
रंगों की खेंप आयी है सूरज की दूकान में !
एक रंग रह गया है लेकिन.
वो वाला जो बनता था तेरे चेहरे पे-
संजा के रंग बिखरने से !
हंसी से तुम्हारी, वो रंग थिरकता था,
तेरे गालो और होटों पे -

मीता ! हंस दे तो पूरी खिले संजा !



मीता  -3 
मीता - 2
मीता ! 

12 नवंबर 2009

नौटंकी

जिसने अपने पत्ते खोल दिए,
वो पतित !
जो बैठे है,
सन्नाटे कि ओड लिए
उनमे तमगे बांटे जाएगे !

6 नवंबर 2009

मीता ! -3

ओ मीता !
तेरी यादो के गीतों से एक बोल उठाया कल
फिर गुनगुनाया कल,
दिन-ब-दिन जिसे हाथो से फिसलता पा रहा था -
उस एहसास को जी आया कल !

ओ मीता !
सपने में तेरा फ़ोन आया कल,
मैं सकपकाया कल,
गन्ने सी मीठ उस 'हेलो' को सुन,
भूला सारा खोया-पाया कल,
तर हो के आया कल !









5 नवंबर 2009

बह गए है वो मंज़र...

भूल गए कुछ बाते जिनसे सरोकार पुराने गहरे थे,
चेहरे वो दिखाई नहीं देते सदा जिनपर आँखों के पहरे थे.

टूट कर मिल गए हैं झील में वो किनारे झील के,
बैठ कर जिन पर हम ढेले लहरों में बोते थे,
पानी चढ़ आया है यादो के तटबंद तक,
बह गए है वो मंज़र -
जो जड़े हमारी होते थे !

2 नवंबर 2009

ज़िन्दगी !

हर पल एक नया सफा है,
हर दिन एक नई किताब है,

ज़िन्दगी कभी ख़त्म नहीं होती...!

वो लड़की.

दरख्तों के झुरमुट से बिखरती सूर्य की किरण सी
किसी थकी सी भीड़ में अलग खड़ी, उर्जा से भरी -
वो लड़की.

कभी नदी के किनारे पड़ी रेत सी स्थिर
तो कभी नदी की धार में बहती चंचल पत्ती सी -
वो लड़की.

कभी समुद्र की राह रोके पड़ी किनारे की चट्टान
तो कभी लहरों सी बेरोकटोक उमड़ती
वो लड़की.

कभी बारिश की पहली बूंदों से उठी सोंधी खुशबू
तो कभी कड़क धूप में धरती में पड़ी दरारों सी
वो लड़की.

कभी घने कोहरे में सामने खड़ी, अबूझ
तो कभी खुली किताब सी
वो लड़की.

31 अक्तूबर 2009

एक शेर

रुके थे कदम घर से निकलने से पहले, तेरे दर पे आ कर फ़िर रुक गए,
झुके थे हम सजदे में, पीली ओडनी से झाँकती नज़रो को देख फ़िर झुक गए।

28 अक्तूबर 2009

शाम हो गई

तेरी कोशिशे
मेरी मजबूरियां
चलते चलते
शाम हो गई

बातें सुबह
जो ख़ास थी,
दिन ढला तो
आम हो गई

27 अक्तूबर 2009

नया सामान

तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे साये की बारी है
उस घर में रहने, नया इंसान आया है।

बची कुची यादो पर रंग पुतने की तैयारी है
उस घर में सजने, नया सामान आया है ।

26 अक्तूबर 2009

तपती दोस्ती



प्रयासों की श्रंखला में खोट की भी एक कड़ी है,
मैं खिड़की में खड़ा हूँ, सड़क पर धूप में तपती दोस्ती पड़ी है।

25 अक्तूबर 2009

एक शेर

तेरे घर से मेरा घर बहुत दूर तो नही लेकिन,
तेरे दिल से मेरे दिल की दूरियों का क्या ?

24 अक्तूबर 2009

मैं एक कुत्ता हूँ !

मैं एक कुत्ता हूँ !
खुद को गाली नहीं दे रहा,
आप आगे पढें तो समझ जायेंगे।

मैं कुत्ता हूँ इसलिए,
कि जब मै उन लोगो को देखता हूँ,
जिनको मैं दोस्त समझता हूँ
तो मेरी अद्रश्य पूँछ हिलने लगती है,
दिल बाग़ बाग़ हो जाता है,
आधी बॉडी मटकने लगती है।

मैं एक कुत्ता हूँ इसलिए,
कि मुझे गंध आती है।
कुत्तो कि सूंघने की शक्ति तेज होती है,
उन्हें दूर दूर से गंध आ जाती है,
तो मुझे भी गंध आ जाती है।

जब किसी शहर में पहुँचता हूँ,
या अपने ही शहर की सड़को पर फिरता हूँ
तो जहाँ मैं बैठा था यारो के साथ,
या जहाँ किसी ठीये पर खाया था कुछ,
बतियाया था कुछ,
या जहाँ कही पैदल घुमे थे,
उन सारी जगहों पर,
वो सालो पुरानी गंध मेरी नाक में समा जाती है -
और मैं नोस्टालजिक हो जाता हूँ...

अब समझ गए होंगे आप,
कि "मैं कुत्ता हूँ" कह कर गाली नहीं दे रहा था खुद को,
बल्कि मैं तो खुद की ही तारीफ़ कर रहा था !

ओर हम सब, मुझे लगता है,
आधे-अधूरे या पूरे कुत्ते/कुत्ती हैं !

सूरज सा प्यार

सूरज घंटो, दिनो भी अगर बादलो में छुप जाए,
तो उसका साथ नही छूटता उसकी रश्मीयों से।
हम देख नही पाते उसे ,
लेकिन वो यूँ ही,
उतने ही तेज के साथ उपस्थित रहता है।

प्यार भी घंटो, दिनो या महीनो खो जाए अगर
अपेक्षा, अविश्वास के बादलो मे,
तो गायब नही होता।
वो बना रहता है ,
दिखाई नही देता साफ साफ,
पर झलकता रहता है -
हरकतों, लहजो और चुप्पियों में !

मीता - 2

इस दुनिया की ठंडी उलाहनाएँ
कभी कभी ठिठूरा देती हैं मुझे
फिर याद आती हैं तेरी बातें -
सर्द सुबह में मीठी धूप सी,
गुदगुदा जाती हैं।

दम घोंटती है जब उदासीनता,
आस पास नाचती नज़रो की,
तब कभी कभी गूंजा जाते हैं,
मन को - गीत तेरे मीता !



मीता - 4
मीता  -3
मीता ! 

दोहरी जिंदगी

मैं दोहरी ज़िंदगी जीता हूँ ,
एक ज़िंदगी ऐसी जिसमे है पहाड़, नदिया, आशा, प्यार।
दूसरी ऐसी जिसमे ज़रूरत है पहाड़, नदियों, आशा और प्यार की।
पर पहली ज़िंदगी के अवयव आते नही दूसरी में।
ठिठक जाते हैं दरवाजे पर ही,
मैं फँसा रहता हूँ फिर दूसरी ज़िंदगी में,
तकता रहता हूँ दीवारो पर, कंक्रीट की, लदी-

पहाड़, नादिया, आशा और प्यार की तस्वीरो को .

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मीता !

ओ मीता !
उन गप्पो-ओ-फांको का हिसाब लगाया कल,
फ़िर पछताया कल -
वो सारे साल हम बस बतियाते क्यों नही रहे ?
क्यों किए वो आडंबर कुछ दुनिया के हिसाब का,
काम का काम करने के ?

ओ मीता -
उन लंबे सन्नाटों का जोड़ बिठाया कल,
फ़िर पछताया कल -
सन्नाटों से चुप्पियाँ तोड़ते,
क्यों नही हमने कुछ और घंटे स्वाहा किए -
सीमेंट की ठंडी बेंचो पर बैठे हुए ?




मीता - 4
मीता  -3 
मीता - 2

बसंती तेरे बिना

तुम्हारी खुशबू मे दौलता मेरा मन-

बेसूध पड़ा है !


सुनहरी बसंत की धूप सी,

तुम्हारी आभा बिखरी है मेरे चेहरे पर।


मेरी साँसे मद्धम-मद्धम बह रही है,

मेरा भीतर ही भीतर सुलगना सह रही है।


मौसम सा - इस बसंत सा,

अल्मस्त हो रहा हूँ मैं और सोच रहा हूँ-

क्या करता इस बसंत का मैं,

बसंती तेरे बिना ?

गुलाब की कली !

मेरे बाग मे गुलाब की कली खिली है,

नन्ही सी।

निहारता हूँ उसे हर सुबह, और आनंद लेता हूँ अपने माली होने का।
दिन-ब-दिन वो फूल मे तब्दील हो जाएगी -
कोमल-सुर्ख-सुंदर फूल।

मेरे आस पास के लोग कहते है मुझसे,
इससे पहले के वो सूख जाए,
मैं चड़ा दूं उसे भगवान को,
या सजा लूँ एक गुलदस्ते मे,
या फिर भेंट कर दूँ उस कली को ही- -बिना उसे फूल बने दिए।

मैं सोच रहा हूँ की मैं हाथ भी नही लगाऊँगा उसे,
पनपने दूँगा उसे
खिलने दूँगा
मुरझाने दूँगा
और फिर झड़ने भी दूँगा !
कोई तोड़ ले जाए मेरे पीछे - तो भी सही,
पर मैं हाथ नही लगाऊँगा उसे।

मकतूब - होना जिसका है निश्चित

मकतूब ! होना जिसका है निश्चित,
कहीं नरम घास पर नागे पाँव,
बच्चे थे तब भागते थे,
बिना ये जाने के जब बड़े हो जाएँगे,
तब भी वो घास खींचती रहेगी हमे /

कभी किसी के बंगले के बाहर तरतीब से कटे-छ्टे लॉन को निहारा करेंगे,
तो कभी टेकरो की पीठ पर बे-तरतीब बारिश से हरी हुई,
यहाँ से वहाँ फैली जंगली घास पर औंधे लेट,
सुसताया करेंगे /

और जब क्रेयान से आडी - तिरछी ,
नौसिखिए हाथ, दस बरस के,
रेखाएँ खींचते थे तो क्या ये जाना था की,
वो अश्पष्ट वादियाँ, झरने, पहाड़ और उनके बीच से उगता सूरज-
इतनी शिद्दत से प्यारे हो जाएँगे
के जिंदगी भर वहीं बसे रहने की तमन्ना मन मे पलने लगेगी,
रोंगटे खड़े होंगे, जब कभी शुभ्र-श्वेत, बर्फ से आच्छादित चोटियाँ दिखाई देंगी -
-क्या ऐसा ख्याल भी आया था कभी ?