हम सबों ने जितने दरवाजे अपने दिलो में खोल रखे हैं
उससे ज्यादा दरवाजे बंद कर रखे हैं.
कही जात-पात के अंतर के चलते दरवाजे बंद हैं,
तो कहीं बौद्धिक विशिष्ठता के.
मानव फितरती रूप से सामाजिक हैं.
मानव फितरती रूप से एक समूह में रहना पसंद करता है-
समूह में ताकि संगठित हो बाकि सब से 'सेफ' महसूस कर सके.
व्यक्तिपरक भी समूह में घूमते है !
वहां सिर्फ वैयक्तिक मानव ही समूह का हिस्सा बन सकते है.
मजाक है !
यार दरवाजो को खोलो.
दरवाजों से कोई परी या कुबेर के खजाने की किश्त
अन्दर नहीं आने वाली.
मुद्दा ये है कि इन दरवाजों के खुलने पर ही वो तमाम झरोखे -
- उन दरवाजो से जुड़े कमरों के- खुल पाएंगे,
जिनसे ताज़ी हवा अन्दर आएगी.
2 टिप्पणियां:
Naimitya, bahut achcha likha hai..i hope people will read this work not just to appreciate but to learn something.
Thanks Shiv :)
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