21 जनवरी 2010

चार शेर

कब तेरी नूरियां मेरी आँखों से ओझल होगी ....


कर रहा था गमे जहाँ का हिसाब, आज तुम बेहिसाब याद आये ...कभी-कभी याद आना किसी का एक मुसीबत सा बन जाता है. हमारे जेहन से चिपकी यादें, मूल रूप से हमारी अस्सेट्स होती हैं. खाजाना जो हमने इकठ्ठा किया है अभी तक के सफ़र में अपने. लेकिन जब इन्ही यादों में से कोई एक, आँखों में नींद न आने दे और एक हिस्सा विश्वास और जस्बा पिघलने लगे, तो वो दर्द बनके रगों में दौड़ता है....दर्द तो कुछ देर में खत्म हो जायेगा, लेकिन जस्बा जो पिघला - तो वापस उतना ही बनने में समय लेता है. 



कब तेरी नूरियां मेरी आँखों से ओझल होगी 
और कितनी रातें, नींद यूँ ही बोझिल होगी.



बोलने लगे है सुनसान सन्नाटे भी अब तो,
मैं सोचता हूँ, बाजी तेरी पायल होगी.


जब तलक समझ पाएंगे प्रीत का मतलब ये लोग,
प्रीत तेरी, दुनिया की नज़रों से यूँ ही घायल होगी.


इंसानों से बेहतर तो जानवर बात करते हैं,
ये कोयल बोली है यहाँ, कूकी कहीं और कोई कोयल होगी.


3 टिप्‍पणियां:

Pankti Vashishtha ने कहा…

Beautifully expressed pain and sarcastic smile!


ओझल हो सके वोह नूरी कैसे होती ...
नींद महबूब की आगोश में ना सिमटती,
तो आपसे उसकी दुश्मनी ना होती ...

गर ख़ामोशी की जुबां ना होती ...
तो हर आहट पर उनकी मौजूदगी ना होती ...

प्रीत का मतलब गर समझती यह दुनिया ...
नाम से रिश्तों की पहचान ना होती ...

इन्सान गर इन्सान होता ...
तो जीवन की राह खुद खुदा तक ख़त्म ना होती ?????

Naimitya Sharma ने कहा…

@pankti : अच्छा जोड़ा है !!...इतने ध्यान से पड़ने और लिखने के लिए धन्यवाद. ! आप ने नया जो लिखा है वो पढ़ नहीं पाया हूँ ठीक से (courtesy coca cola !) ....उम्मीद है जल्दी जी छुट्टी मिलेगी

Pankti Vashishtha ने कहा…

सरजी तैरना सीखा नहीं, और डूबने की आदत है .... :) good luck for the project!!