24 अक्तूबर 2009

मकतूब - होना जिसका है निश्चित

मकतूब ! होना जिसका है निश्चित,
कहीं नरम घास पर नागे पाँव,
बच्चे थे तब भागते थे,
बिना ये जाने के जब बड़े हो जाएँगे,
तब भी वो घास खींचती रहेगी हमे /

कभी किसी के बंगले के बाहर तरतीब से कटे-छ्टे लॉन को निहारा करेंगे,
तो कभी टेकरो की पीठ पर बे-तरतीब बारिश से हरी हुई,
यहाँ से वहाँ फैली जंगली घास पर औंधे लेट,
सुसताया करेंगे /

और जब क्रेयान से आडी - तिरछी ,
नौसिखिए हाथ, दस बरस के,
रेखाएँ खींचते थे तो क्या ये जाना था की,
वो अश्पष्ट वादियाँ, झरने, पहाड़ और उनके बीच से उगता सूरज-
इतनी शिद्दत से प्यारे हो जाएँगे
के जिंदगी भर वहीं बसे रहने की तमन्ना मन मे पलने लगेगी,
रोंगटे खड़े होंगे, जब कभी शुभ्र-श्वेत, बर्फ से आच्छादित चोटियाँ दिखाई देंगी -
-क्या ऐसा ख्याल भी आया था कभी ?

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