मैं दोहरी ज़िंदगी जीता हूँ ,
एक ज़िंदगी ऐसी जिसमे है पहाड़, नदिया, आशा, प्यार।
दूसरी ऐसी जिसमे ज़रूरत है पहाड़, नदियों, आशा और प्यार की।
पर पहली ज़िंदगी के अवयव आते नही दूसरी में।
ठिठक जाते हैं दरवाजे पर ही,
मैं फँसा रहता हूँ फिर दूसरी ज़िंदगी में,
तकता रहता हूँ दीवारो पर, कंक्रीट की, लदी-
पहाड़, नादिया, आशा और प्यार की तस्वीरो को .
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1 टिप्पणी:
bahut achchhe!
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