24 अक्तूबर 2009

गुलाब की कली !

मेरे बाग मे गुलाब की कली खिली है,

नन्ही सी।

निहारता हूँ उसे हर सुबह, और आनंद लेता हूँ अपने माली होने का।
दिन-ब-दिन वो फूल मे तब्दील हो जाएगी -
कोमल-सुर्ख-सुंदर फूल।

मेरे आस पास के लोग कहते है मुझसे,
इससे पहले के वो सूख जाए,
मैं चड़ा दूं उसे भगवान को,
या सजा लूँ एक गुलदस्ते मे,
या फिर भेंट कर दूँ उस कली को ही- -बिना उसे फूल बने दिए।

मैं सोच रहा हूँ की मैं हाथ भी नही लगाऊँगा उसे,
पनपने दूँगा उसे
खिलने दूँगा
मुरझाने दूँगा
और फिर झड़ने भी दूँगा !
कोई तोड़ ले जाए मेरे पीछे - तो भी सही,
पर मैं हाथ नही लगाऊँगा उसे।

कोई टिप्पणी नहीं: