तुम्हारी खुशबू मे दौलता मेरा मन-
बेसूध पड़ा है !
सुनहरी बसंत की धूप सी,
तुम्हारी आभा बिखरी है मेरे चेहरे पर।
मेरी साँसे मद्धम-मद्धम बह रही है,
मेरा भीतर ही भीतर सुलगना सह रही है।
मौसम सा - इस बसंत सा,
अल्मस्त हो रहा हूँ मैं और सोच रहा हूँ-
क्या करता इस बसंत का मैं,
बसंती तेरे बिना ?
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